Saturday, 28 January 2017

जौहर- गाथा

मेरे लिये शब्द सिर्फ शब्द नहीं होते | वो जीवंत परिवेश होते हैं | मैं प्रेमचन्द को पढते वक्त खुद को होरी का भाई पाता हूँ | निर्मला को पढते समय मैने उसे मेरी सखी पाया | उसके हालात पर मेरी आखों में अंगार थे | उसी तरह जब मैं जौहर शब्द सुनता हूँ तो खुद को आग की लपटों में घिरा पाता हूँ | मैं आखेँ मूँद भी लूँ तो भी राजपूतानियों के जलते शरीरों के दृश्य मेरे अंत:करण को बींध देते हैं | कानों को बन्द भी कर लूँ फिर भी उनकी कारूण चीखें मेरे कानों के परदे चीर देती हैं |
बचपन में चाय पर ज़रा सा जल गया था एक बार | घर में कोहराम मच गया था | कोलगेट लगाओ दही लाअो | यह करो तो छाला नहीं पडेगा वह करो तो निशान चला जायेगा | तनिक सोचिये कैसा वीभत्स दृश्य होगा वो जब सैकडों हजारों महिलायें इस्लामी अत्याचारियों से अपनी पवित्र देह बचाने के लिये जौहर में प्रवेश कर रही होंगी | रूह तो काँपी होगी उनकी एक बार | पैरों ने भी साथ नहीं दिया होगा शायद | फिर भी अपनी इज्ज़त की रक्षा के लिये , मुगल शासकों के हरम में रखेल बनने की जगह उन्होने मौत को गले लगाना ऊचित समझा |

दीगर-ए-बात है वो जहर खा के भी जान दे सकतीं थीं | पर उन्होने जौहर चुना | मौत का सबसे कठिन रास्ता | जलती चिता में ज़िन्दा सशरीर प्रवेश | बस रणभूमि से ख़बर आयी राणा के हुतात्मा होने की और इधर पग बढ गये जौहर की तरफ | क्यूँ ? क्युकि मरने के बाद भी इस्लामी दहशदगर्द उसके शरीर की बोटी बोटी नोच लेंगे | सुनी थी पद्मिनी ने राजा दाहिर की दोनों पुत्रियों की कहानियां | किस तरह दरिन्दों ने मृत शरीरों को अपवित्र किया था | यही हाल राणा जी हत्या के बाद उसके शरीर का होना था |

इसीलिये उसने हीरे नहीं चाटे | इसीलिये उसने जहर नहीं खाया | इसीलिये उसने अपनी कटार से अपनी अंतडियाँ नहीं काटी | इसीलिये उसने जलती चिता में प्रवेश किया | ताकि उसका शरीर भस्मीभूत हो जाये | ताकि उसकी देह को विधर्मी स्पर्श भी न कर पायें | वो तो राणा के प्रेम में पगी थी | उसी प्रेम के लिये उसने खुद को कुर्बान कर दिया | राणा ने भी अपनी जान की बाजी लगा उसकी रक्षा की | अपने जीते जी उन्होने वाहशी खिलजी को राजपूतों की इज्ज़त से खेलने नहीं दिया | प्रेम इसे कहते हैं निर्देशक महोदय |
प्रेम 2 आत्माओं का मिलन होता है | अलाउद्दिन खिलजी ने जो किया उसे वासना कहते हैं | और प्रेम में तो वासना का दूर दूर तक स्थान नहीं होता | अलाउद्दिन रानी पद्मिनी के शरीर को पाना चाहता था | उनकी आत्मा को नहीं | इसीलिये इतिहास ने खिलजी को कामी कीडा लिखा और पद्मिनी को आत्मबलिदानी | ये इतिहास का वो न्याय है जो खिलजी और उसके मानस पुत्रों के माथे पर कलंक है | खिलजी के वंशज लाख कोशिश कर लें पर इस कलंक को अपने माथे से वो धो नहीं सकते |
आप पद्मिनी के चरित्र को कलंकित करना चाहते हैं | अल्टरनेट वियू के नाम पर आप राजपूती अस्मिता को तार तार करना चाहते हैं | पर य़ाद रखिये जिसे खिलजी जैसे दुर्दांत हत्यारे नहीं कर पाये उसे आप जैसे तुच्छ फिल्मकार भी नहीं कर सकते | क्युकि सूरज पर थूकने वाले शायद ये भूल जाते जाते हैं कि उनका थूक पलट कर उनके मुंह पर ही गिरता है |

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