Thursday, 1 March 2018

अप्राइम_टाइम: होलिका ज्ञान

अभी कल होली है | आप सभी को रंगों के प्यार भरे उत्सव की अशेष शुभकामनाये | ये होली आपके जीवन को ख़ुशी और समृद्धि के रंगों से सराबोर कर दे |
हम सब जानते हैं कि होली आपसी मेल मिलाप का त्यौहार है | इस दिन हम अपने पुराने मित्रों से और जिनसे छिटपुट लड़ाई होती है उन सभी से गले लगकर अपने पुराने बैर भुला कर एक नए सौहार्दपूर्ण रिश्तों की शुरुवात करते हैं | मेरा ओब्जर्बेशन बस यहीं से शुरू होता है | कुछ प्रश्न जो हर होली पर मेरे मन में उठते हैं ... वो हैं
बैर किससे भुलाएँ ?
प्रेम किससे करें ?
मेल मिलाप किसके साथ हो ?
सामंजस्य किससे बैठाये ?
     मेरे सामने यही समस्या आकर खड़ी हो गयी है | मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि प्रेम के इस त्यौहार का मतलब क्या है ?
     सामने एक बन्दा हाथ में शमशीर लिए मेरे टुकड़े टुकड़े करने के इरादे से खड़ा है | क्या मैं आगे बढ़कर उसे गुलाल लगाऊं
     जो हाथ मेरी भारत माँ के आंचल की तरफ उसे विदीर्ण करने के लिए बढ़ रहे हैं क्या उन हाथों में मैं जौ की भुनी बालियाँ देकर उन्हें आत्मीयता के बंधन में बांध लूँ ?
क्या ये ठीक होगा ?
     या जो पैर मेरे देशवासियों को कुचलने के लिए आगे बढ़ रहे हैं उन पैरों में होलिका के शिष्टाचारवश अपना शीश झुका दूँ
क्या करूँ मैं ???
हम सब समाज में रह रहे हैं | और समाज कभी एक व्यक्ति से नहीं बनता | समाज सहअस्तित्व की अवधारणा में विश्वास रखता है |
     अगर मैं आपका अस्तित्व स्वीकार कर रहा हूँ तो आपको भी मेरा अस्तित्व स्वीकार करना होगा |
     होली के दिन आप मेरे घर की गुजिया खाएं और अगले दिन मुझे जिबह करने के लिए खड़े हों जायें तो मेरा दायित्व है ये सोचना कि क्या मैं आपको गुजिया खिलाकर रंगों में सराबोर कर अपने समाज के साथ उचित कर रहा हूँ ?
     मेरे किसी मित्र से किसी बात पर बहस हो तो एक घंटे एक दिन या ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ते में उससे पुन: बातें शुरू हो जाती हैं | क्यों ?
     क्योकि उनका अल्टीमेट उद्देश्य मेरी मृत्यु नहीं है | पर यहाँ तो सामने लाल बत्ती जल रही है | साफ खतरा महसूस हो रहा है | कम से कम मैं बिल्ली को सामने दे:ख अपनी आँखें बंद नहीं कर सकता | मैं कबूतर नहीं हूँ भाई ...
     इसीलिए मुझे और आपको सजग तो रहना होगा | मुझे और आपको मजबूत होना ही पड़ेगा | मुझे और आपको आगे आना ही पड़ेगा | अपनी सुरक्षा के लिए अपने समाज के हित के लिए ...
अब सवाल ये है कि ये कैसे संभव है | और जबाब सिर्फ एक है :
संगठन ...
     हम सबने पढ़ा है | एक किसान... किसान के चार बेटे चारों बेटे अलग अलग लकड़ियाँ आसानी से तोड़ लेते हैं | पर लकड़ियों का बण्डल को तोड़ने का सामर्थ्य उन चारों में से किसी के पास नहीं था | यह है संगठन की शक्ति |
ये संगठन कैसे बनता है ?
     ये संगठन बनता है मेरे और आपके साथ आने से | हम दोनों और फॉर दैट मैटर हम सब जब एक दूसरों के सुख दुःख में सहभागी होंगे | उससे बनेगा ये संगठन |
     और यही सब करते हैं हम अपनी शाखा में आज सोशल मीडिया का युग चल रहा है | सारे रिश्ते मोबाईल के मोहताज हैं | मैं पूछ नहीं रहा पर आप गिनिये कि अपने मोहल्ले भर में कितने लोगों को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं आप ?
     किस किस घर में आपने चाय पी है जाकर और कितनी बार ? फिर आप खुद ही अंदाज लगा लीजिये कि विपत्ति की स्थिति आने पर मोहल्ले भर में कितने लोग आपके साथ खड़े होंगे ?
     जो आकंडे आप लगायेंगे उन्हें बिना देखे मैं कह सकता हूँ कि भयावह है मित्र | जिसकी परिणिति डॉ नारंग सरीखी है |
     इसीलिए इसी होली पर अपने सगंठन का शुभारम्भ कीजिये | एकत्रित होइए | शाखा में आइये | मेल जोल बढाइये |सामंजस्य बैठाईये | पर सही लोगों के साथ |
     जय श्रीराम ... होली की पुन: अशेष शुभकामनाये | ये होली आपके लिए शुभ हो _/\_
-अनुज अग्रवाल

Wednesday, 7 February 2018

ताड़का वध

     "रुक क्यों गये राम ? शरसंधान करो |" राजर्षि विश्वामित्र ने बालक राम को आदेशित किया |
     "पर गुरुदेव सामने एक स्त्री है | एक क्षत्रिय स्त्री पर हाथ नहीं उठा सकता फिर उसके वध के लिये उद्यत कैसे हो?" स्त्री और राक्षसी के भेद से अज्ञात जिज्ञासु राम ने गुरु विश्वामित्र से प्रश्न किया |
     "मूर्खता न करो राम | सामने स्त्री नहीं राक्षसी है | स्त्री और राक्षसी के भेद को समझो |"
     "स्त्री मातृत्व की मूर्ति है जो सृजन कर सृष्टि के निर्माण में परमात्मा की सहयोगिनी बनती है | इसीलिए वह अवध्य है |"

     "पर एक राक्षसी उसी सृष्टि में विध्वंस रचाती है | निर्दोषों का संहार करती है | ऋषि मुनियों को प्रताड़ित करती है | एक राक्षसी स्त्री होने की अहर्ता पूरी ही नहीं करती | इसीलिये उसका वध शास्त्र-सम्मत भी है |"
     "कुछ समय पूर्व जिन बेजान मानव अस्थियों को तुमने अपने कमल सर्द्श पैरो से छुआ था | वो किसी समय सजीव हुआ करती थी | उस सजीव को इसी राक्षसी ने असमय काल कलवित कर दिया |"
     "माना एक स्त्री पर हाथ उठाना भी एक क्षत्रिय के लिये पाप है किन्तु निर्दोषों की रक्षा करना और ऋषि मुनियों को संरक्षण प्रदान करना भी क्षात्रधर्म है | अत: ये दंड की भागी है | इसीलिये हे राम शरासन की प्रत्यंचा तानो और शरसंधान करो ..."
     शरसंधान शब्द के वायुमंडल में गूंजित होने से पूर्व ही राम के शर ताड़का की ग्रीवा का रक्त चख चुके थे | अगले ही क्षण उसका मस्तक भूमंडल पर डोलने लगा |
     राम को अब स्त्री और राक्षसी का भेद समझ आ चुका था | शुक्र है अब राम के वंशज भी ये भेद समझने लगे हैं | इसीलिये अब ताड़का वध के समय उन्हें विश्वामित्र के मार्गदर्शन की जरूरत भी नहीं होती |

     काल भले ही आज त्रेता से कलियुग की यात्रा कर चुका हो | भले ही वध के तरीके भिन्न हो गए हों | तब शरों से वध होता था आज शब्दों से होने लगा है | पर अभीष्ट आज भी एक ही है | ताड़का वध .... और वो होकर रहेगा ....
जय श्रीराम 

Thursday, 11 January 2018

स्वामी विवेकानंद और राष्ट्रवादी युवा

     स्वामी विवेकानंद मेरे लिए किसी व्यक्ति मात्र का नाम नहीं है | ये मेरे लिए एक विचार है, एक चिंतन है | वो चिंतन जो हमेशा मेरे अंतर्मन को उद्वेलित कर हमेशा मुझे कुछ सकारात्मक करते रहने की सतत प्रेरणा देता है | ये नाम मेरे लिए यज्ञ वेदी में प्रज्जलित उस अग्नि की तरह है जो मेरे हृदय की कलुषिता को मिटाते हुए अपने सामान शुद्ध और पवित्र करती है | ये मेरे लिए गंगोत्री से निकली माँ गंगा के निर्मल जल की तरह है जो कल-कल निनाद करते हुए मेरे कानो में निरंतर चरैवेति -चरैवेति का उद्घोष करता है | जो हमेशा मुझे लक्ष्य तक पहुंचे बिना न रुकने की अक्षय ऊर्जा देता है |

     माँ काली के अनन्य उपासक स्वामी रामकृष्ण परमहंस के प्रिय शिष्य, शिकागो के धर्म सम्मलेन में हिन्दू धर्म पर अपने व्याख्यान से सम्पूर्ण जगत को सम्मोहित करने वाले प्रखर वक्ता की पगधूलि का भी वर्णन कर सके, मेरी कलम में वो सामर्थ्य नहीं | प्रणाम हिंदुत्व के भाष्यकार, अध्यात्म के मर्मज्ञ उस महान संत को जिसने तत्कालीन हिन्दू समाज को रूडीवादिता की बेड़ियों से मुक्त कराया |
     जिसने न हिन्दू पतितो भवेत् की उक्ति देकर उन हजारों बिछड़े भाइयो का उद्धार किया जिन्हें छल या बल से विधर्मी बना दिया गया था | उन्होंने यदि पुनरुद्धार कार्यक्रम न चलाया होता तो शायद इतिहास के पन्ने किसी दूसरे काला पहाड़ के क्रूरतम अत्याचारों की कहानियों से रंगे होते |
     सही अर्थो में धर्म की व्याख्या स्वामी जी ने ही है | राष्ट्रधर्म ही सबसे बड़ा धर्म है | और इसे निभाने के लिए युवाओ को ही आगे आना पड़ेगा | ऐसा स्वामी जी का मानना था | युवा वायु की तरह होते है | अगर इन्हें सही दिशा मिले तो विकास अन्यथा विनाश का सृजन करते हैं | ऐसे में युवाओं में बचपन से ही राष्ट्रवाद जड़ें रोपित करनी चाहिए | ताकि युवा शक्ति देश की उत्तरोत्तर प्रगति में भागीदार हो |
जन्मदिवस पर कोटिश: नमन


Thursday, 4 January 2018

कहानी : माघ की एक रात

     आखिर थी कौन वो | कहाँ से आई होगी इन चिल्ला जाड़ों में बिना गर्म कपडे पहने ? कहाँ गई होगी वो ? कैसे काटी होगी सर्द हवाओ से बेजार ये रात ? दिखने में मलिन, जर्जर हड्डियों का ढांचा मात्र, केवल दुशाला ओढे कृशकाय एक 60 65 साल की प्रौढ़ा ?

     बस यही तो थी उसकी पहचान | बालों में सफेदी, आँखों में उदासी, चेहरे पर बेबसी | अभी दोपहर में ही तो देखा था उन्हें | बेचालों और खरीदारों से गुलजार बाज़ार में अलाव पर अकेली बैठी गुमसुम सी | सूखे मार्गशीर्ष में बरबस छलकती उसकी आँखें में उसके आँसू नहीं मानो उसकी व्यथा बह रही हों |

     लगा जैसे किसी के इंतज़ार में है | शायद कोई कन्धा .. जो उसे सहारा दे | उसके हालात चीख चीख कर कह रहे थे कि इस बुढ़िया के बुढ़ापे की लाठी भगवान छीन चुका है ..

     दुकान पे बैठे अक्षर के ह्रदय में दया का सागर उमड़ने लगा था | अचानक मियां की फेंकी हुई बीडी से उसकी तन्द्रा टूटी पर | वो झपटी उस चैथाई फुंकी हुई बीडी पर | अगले क्षण अक्षर की सारी दयाभावना परखनली से निकली वाष्प की तरह वातावरण में घुल गई | वो बुढ़िया कश दर कश हर फ़िक्र हवा में जो उड़ा रही थी | कुछ समय बाद वो आँखों से ओझल हो गई |

     शाम करीब सात बजे फिर वो मिली | चौराहे के उसी अलाव पर | अक्षर के अन्दर के मानवीय कीड़े फिर से कुलबुला उठे | फिर से अक्षर विचारों की तन्द्रा में डूबने उतराने लगा | मानव जीवन जीने के लिए जरूरी मूलभूत जरूरतों में से क्या था उसके पास ? रोटी जो उसने दिन भर में शायद ही खाई हो .. कपड़ों के नाम पर तन पर पड़े कुछ चीथड़े ... और छत .. वो तो थी ही नहीं .. छिन गई या छीन ली गयी .. किसे पता .. किसे परवाह ...

     सूरज का कहीं पता न था | शाम का वक्त अँधेरे में तब्दील होने लगा था | मार्गशीष की ठण्ड धीरे धीरे बढ़ रही थी | समय, मौसम सब कुछ बदल रहा था | नहीं बदला रहा था तो सिर्फ बुढ़िया का भाग्य | आसपास पूछने पर पता चला कि आज ही आई है | किसी को कोई खबर नहीं | किसी से कुछ कहा भी नहीं | खाया पिया भी शायद कुछ नहीं | ये सुनकर अक्षर का हाथ उसकी जेब में पहुँच गया

     कुल पांच का एक और एक-एक के दो सिक्के थे | दिल में करुणा बहुत थी पर जेब ने अनुमति नहीं दी | पास में चाय की दुकान पर एक चाय और पारले के पैसे दे दिए

     "सुनो डोकरी को चाय पिला देना ।" न जाने क्यों उस रात हिम्मत नहीं हुई उसकी बुढ़िया के पास जाने की | पूछ भी न सका कि अम्मा ! कहीं तुझे ठण्ड तो नहीं लग रही ... या भूखी तो न है ... |” क्युकि इन प्रश्नों के जबाब उसे भलीभांति पता थे | मनमसोस कर अक्षर घर आ गया | दूसरों की मरी हुई मानवता को कोसते हुए ...

     बंद कमरे में 2 गद्दों के ऊपर लेते हुये, रजाई को कसकर पैरों से भींच रखा था अक्षर ने | फिर भी कहीं सुराख़ रह गया था एक | पांव बर्फ हो चुके थे और नींद आँखों से ओझल | करवटों पर करवटें बदलती रहीं | चद्दर पर सलवटें पड़ती रहीं |

     चारों तरफ से बंद कमरे में ... रजाई और गद्दे में सोये अक्षर का ये हाल था | फिर उसका क्या हुआ होगा जिसके पास न छत थी और न कम्बल | अक्षर चाहता तो शायद एक कम्बल का इन्तेजाम तो कर ही सकता था | माँ से कहता तो शायद वो अपनी पुरानी शाल दे देतीं | मना भी कर देतीं तो अपना एक पुराना स्वेटर तो दे ही सकता था | उसी में उस बुढ़िया का काम चल जाता |

     ये गाँव के लोग भी न लोहे के बने होते हैं | गर्मी जाड़े बरसात सिर्फ एक शर्ट में काट लेते हैं | वो भी एक स्वेटर से काम चला लेती | सोने की खूब कोशिश की अक्षर ने पर बुढ़िया के ख्यालों ने सोने न दिया | खैर सुबह कहीं जाकर नींद ने अक्षर को अपने आगोश में ले ही लिया |

     सुबह होते ही उसकी तलाश में निकल पड़ा | पर बुढ़िया दिखाई न दी | बाज़ार में भी पूछा | पर किसे पता होता | खैर पुरे दिन वो नहीं मिली | शाम तक अक्षर उसे भूल भी चुका था कि थी कोई मराऊ बुढ़िया जिसकी वजह से उसे रात भर नींद नहीं आई |

     अगले दिन सुबह चाय की चुस्कियों के साथ साहब अखवार पढ़ रहे थे कि माँ ने आवाज लगा दी | "बेटा स्वेटर पहन लो बाहर बहुत ठण्ड है |" ठण्ड वाकई बहुत बढ़ चुकी थी | कासगंज की हेडलाइंस में भी लिखा था "भीषण ठण्ड ने ली एक प्रौढ़ा समेत चार लोगों की जान |"

नोट: #माघ_की_एक_रात सत्य घटनाओं पर आधारित कहानी है ...
-अनुज अग्रवाल


Wednesday, 6 December 2017

इतिहास के पन्नों में अयोध्या

     6 दिसंबर 1992 इतिहास में दर्ज ये एक तारीख मात्र नहीं है | ये हो भी नहीं सकती | अपने आप में इतिहास समेटे है ये दिन | 500 सालों का इतिहास | अपने रामलला की जन्मभूमि को स्वतंत्र कराने का इतिहास | उसके लिए दसियों युद्ध सैकड़ो लड़ाइयों का इतिहास | लाखों बलिदानों का इतिहास | अपनों द्वारा छली गयी और तमाम राजनैतिक षड्यंत्रों का शिकार रही पुनीत पावन #अयोध्या भूमि का इतिहास है ये | ये सरयू में बहे उन हुतात्माओं के लहू का इतिहास है जिसने अपने भरतवंशीय पुत्रों के रक्त को पुकारा और भरतवंशियों ने अपनी शिराओं में दौड़ते इसी लहू से जन्मभूमि का आज के दिन तिलक कर दिया |



     एक धर्मांध कट्टरपंथी विदेशी आक्रान्ता भारत आता है शबाब और शराब के नशे में डूबी हुए दिल्ली की लोदी सल्तनत उसे एक मामूली लुटेरा समझती रही | वो काबुल से अपने खच्चरों पर बैठ कर आया और दिल्ली के सुलतान की सल्तनत के परखच्चे उड़ा कर चला गया | 300 सालों की गुलामी से छिन्न-भिन्न, हमारी बची खुची, टुकडो में बंटी किन्तु अपने स्वार्थ लिपसा में डूबी #राजशाही उससे लड़ने की हिम्मत न जुटा सकी | एक राणा सांगा ने जरूर खानवा आकर उसे ललकारा पर हाय रे दुर्भाग्य अपने ही सहोदरों ने धोखा दे दिया |

     निश्छल भारतवासी भी उसकी कुटिल चालों को नहीं समझ सके | या सच अगर लिखूं तो कोई हो नृप हमें का हानिवाली मानसिकता ले डूबी | वरना क्या कारण था जो तोमरों की सेना बाबर से जा मिली | राणा सांगा को दक्षिण के महान साम्राज्यों से कोई मदद नहीं मिली ? भाषायें अलग हैं पर भारतीय एक हैं | भारतवर्ष भेषभूषा से भिन्न किन्तु सांस्कृतिक और राजनैतिक रूप से #अखंड है | महान आचार्य चाणक्य की ये सीख हम क्यों भूल गए ?

     1527 में बाबर खानवा का युद्ध जीतता है और 1528 में वो श्री राममंदिर तुडवा कर मज्जिद चिनवा देता है | क्यों ? क्युकि उसे उसके लक्ष्य का पता होता है | वो जानता था कि ये मंदिर ही भारत की एकता का प्रतीक है | श्रीरामलला जन-जन के आराध्य हैं | दुष्ट रावण के संहार करने की प्रेरणा देने वाले हैं | यदि इस शक्ति के प्रतीक श्री राम के पवित्र मंदिर को अगर उसने तहस नहस कर दिया तो उसकी सल्तनत को चुनौती देने की हिम्मत कौन करेगा ?

     चुन चुन के उसने और उसके वंशजो ने मंदिरों को ढहाया ये बताने के लिए देखो तुम्हारा खुदा तुम्हे नहीं बचा सकता | गौरव और शक्ति की प्रतीक प्रतिमाओं को मज्जिद की सीढ़ियों में चिनवा दिया । ये जताने के लिए कि तुम्हारे #शक्ति के प्रतीक खोखले हैं | मुग़ल इसमें सफल भी रहे | क्युकि शक्ति उन मूर्तियों में थी नहीं | शक्ति तो हमेशा जनता की भुजाओ में निहित थी | वो जनता जो अपने स्वार्थ के चलते अपने सामाजिक कर्तव्यों को भुला बैठी थी | अरे खुद श्री राम ने रावण को अकेले नहीं मारा | उसके लिए सुग्रीव, हनुमान, अंगद, नल-नील और यहाँ तक कि नन्ही गिलहरी तक ने सहयोग किया | श्री राम ने जंगलों से ब्रह्मास्त्र नहीं छोड़ा रावण पर | उनके सहयोग के लिए जनता आगे आई | उसकी मदद से श्रीराम ने लंका फतह की |

     खैर भारत में सारे बुजदिल नहीं रहते थे | कुछ लोग थे जिनकी शिराओं में उनके पूर्वजों का खून था | कुल 1 लाख 73 हजार लाशें गिरने के बाद ही मीर बांकी मंदिर गिरा पाया | देवीदीन पांडे, राणा रणविजय सिंह, रानी जयराज कुमारी, स्वामी महेश्वरानंद आदि लोगों के राम जन्मभूमि की स्वतंत्रता के लिए समय समय पर तमाम छोटे-बड़े युद्ध लड़ें और अपनी क़ुरबानी दीं | अकबर के राज्य में लगभग 20 हमले हुए जिसके परेशान अकबर ने वहां पूजन की अनुमति दी |

     जहागीर और शाहजहाँ ने अपने बाप दादो के यथास्थिति वाले फैसले को ही आगे बढाया पर 1658 में दिल्ली की गद्दी पर सत्तानशीं टोपियाँ सीकर अपनी जिन्दगी जीने वाला कथित महान सूफी संत औरंगजेब मुग़ल सल्तनत की छाती पर होने वाली #बुतपरस्ती को सहन नहीं कर सका | उसने जाबांज खान के नेतृत्व में अयोध्या पर आक्रमण कराया | हालाँकि अपने इरादों में औरंगजेब सफल नहीं हुआ | गुरु गोविन्द सिंह ने जाबांज खान को अल्लाह से मिलवा दिया |

     इस हार के बाद औरंगजेब 6 साल तक जन्मभूमि की तरफ आँख उठाने की हिम्मत न कर सका | 1664 में अपनी शक्ति एकत्र कर रक्त पिपासु औरंगजेब ने अयोध्या पर आक्रमण किया | मंदिर की रक्षा के लिए 10 हजार से ज्यादा हिन्दुओं ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया | किन्तु वो विफल रहे | जन्मभूमि एक बार फिर परतंत्र हुई | राम चबूतरा तोड़ दिया गया | पर हिन्दुओ ने हार नहीं मानी |

     संघर्ष आगे चलता रहा | राजा गुरुदत्त सिंह और राजकुमार सिंह ने इसे दासता से छुड़ाने के प्रयास किये | 1751 तक ये मंदिर कभी अपने कब्जे में कभी जाहिल लुटेरों के कब्जे में आता जाता रहा | मराठों ने अफगानियों के खिलाफ युद्ध लड़ा | पर दुर्भाग्य से वो #पानीपत में हार गए और मंदिर स्वतंत्र कराने का सपना फिर से सपना बन कर रह गया | इसके लगभग 100 साल तक शांति रही | फिर 1854 से 1856 बाबा रामचंद्र दास और बाबा उद्धव दास ने लखनऊ के नबाबो कमश: नसीरुद्दीन हैदर और वाजिद अली शाह से 5 युद्ध किये |

     फिर आया 1857 ये वो समय था जब देश में अंग्रेजों के विरुद्ध आज़ादी का बिगुल फूंक चुका था | हिन्दू मुस्लिम कंधे से कन्धा मिलाकर अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे | ऐसे में विवाद की जड़ को खत्म करने के उद्देश्य से मुस्लिम नेता अमीर अली ने मुस्लिमों को समझाकर अयोध्या की कमान बाबा #रामचन्द्रदास को देने का निर्णय किया | हिन्दुओं के आराध्य का भव्य मंदिर अयोध्या में बने इस पर सभी मुस्लिम राजी थे | किन्तु हाय रे दुर्भाग्य अपनी फूट डालो की नीति के तहत अंग्रेजों ने बाबा रामचंद्रदास और आमिर अली दोनों को एक पेड़ पर लटकवा दिया | राम मंदिर मुद्दे को सौहार्दपूर्ण को हल करने का ये शायद आखिरी मौका था |

     1886 में इस मुद्दे पर एक याचिका अंग्रेजो के समक्ष दाखिल की | पर अंग्रेंजों ने इस पर कुछ निर्णय करने से इंकार कर दिया | 23 दिसंबर 1941 को यहाँ पूजा की अनुमति मिल गयी | फिर 1949 को न्यायलय में वाद दायर किया गया | 7 अक्टूबर 1984 को अयोध्या में मंदिर पुन: निर्माण का संकल्प लिया गया | 1 फरवरी 1986 को बाबरी ढांचे में लगा ताला हटा दिया गया | 19 नवम्बर 1989 वो एतिहासिक दिन था जब एक #हरिजन ने श्रीराम मंदिर की नींव का पहला पत्थर रखा | 1990 में बात काफी आगे बढ़ी | 30 अक्टूबर को विहिप ने कार सेवा की घोषणा की |

     उस समय मुलायम सिंह की सरकार थी | लाखों लोग उस दिन अयोध्या में थे | पूरी कोशिश थी सरकार की कि अयोध्या में कारसेवक प्रवेश न कर पायें | पर रामभक्तों ने वहां मौजूद हर बैरियर को तोड़ते हुए कारसेवा की | उसी दिन गोली चली और कई रामभक्तों ने अपनी जानें गवाईं | जिन लोगो ने प्राण गवाये उसमे #कोठारी बंधू भी शामिल थे | अपने सीने पर गोलियां खाते समय उनकी उम्र 18 और 20 साल थी |

     ये कुर्बानियां बेकार नहीं गयी | उनकी मृत्यु देश भर के हिन्दुओं की आत्माओं को झकझोर गयी | जिसकी परिणिति हमें 6 दिसंबर 1992 को दिखाई दी | जब लाखों रामभक्तों के समूह ने फतह करते हुए 500 साल की गुलामी के प्रतीक उन 3 गुम्मदों को जमीदोज कर सदियों से चली आई सांस्कृतिक वर्चस्व की लड़ाई में एक मील का पत्थर स्थापित किया | एक लक्ष्य उस दिन हमने पाया |



     पर मित्रो अभी पूरा लक्ष्य सधा नहीं है | बहुत कुछ है जो पाना अभी बाकी है | मंदिर की सौगंध खाने वालों ने शायद उन लाखो हुतात्माओ के बलिदान को बिसरा दिया होगा, पर हिन्दू समाज कभी उन वीरो को नहीं भूलेगा | वो सौगंध पूरी होकर रहेगी जो #रामलला को साक्षी मानकर हमारे पूर्वजों ने खाई थी | एक इतिहास उस दिन लिखा गया था | एक इतिहास लिखना अभी बाकी है | वो दिन दूर नहीं जब माननीय उच्चतम न्यायलय सभी साक्ष्यो को मद्देनजर रखते हुए अपना निर्णय देगा | और अयोध्या में मेरे और आपके सहयोग से भव्यतम श्री राम मंदिर बनेगा |
जय जय श्री राम !!

Tuesday, 19 September 2017

रोहिंग्या भारत छोडो

     पुराने ज़माने में राजा महाराजा अपने साथ एक भाट(कवि) अवश्य रखते हैं | जो हमेशा उनके साथ मौजूद रहते थे | उनका काम था रजा की प्रशंसा में कविता लिखना | इससे होता कुछ नहीं था बस राजाओ के अहम् को संतुष्टि मिलती थी | इसके एवज में उन्हें बेशुमार दौलत मिलती थी | उस इनाम के लालच में ये भाट लोग कुछ भी फेंक देते थे |



     मान लो किसी युद्ध में राजा का घोडा गिर पड़ा तो ये भाट लोग ये नहीं कहेंगे कि घोडा थक गया उसे भोजन पानी की जरूरत है वो ये कहते थे " वाह वाह सम्राट जी आपका स्टेमिना तो देखो ये घोडा मर गया आप अभी तक नहीं थके | वाह सम्राट वाह |" और 'सम्राट' जिनके पास मुश्किल से 10 हजार एकड़ की जागीर होती थी खुश होकर गले के हार तोड़ कर दे दिया करते थे |


     कालांतर में ये साइकोलॉजी की एक कला बन गई | जिससे आपको काम निकलवाना हो उसकी प्रशंसा कीजिये | खुद को उससे निर्बल और बेसहारा बताइए | और आसानी से अपना काम निकलवा लीजिये |


     हमारे यहाँ एक मास्टर साहब थे | पूरा इलाका उन्हें बड़े भले मानुष के नाम से जानता था | मास्टर थे ... ठोड़ी में हाथ डालकर काम निकलवाने वाले | पर मुझे हमेशा उनमे एक चालक व्यक्ति नजर आया | जब भी रजिस्टर बनाने से सम्बंधित कोई काम होता उन्हें या तो दस्त लग जाते या उनके खेत में पानी लगना होता था | अगले दिन वो हमारे दरवाजे पर दिखाई देते | पिताजी से कहते “अरे मास्साब नैक हमाओ जे काम कर द्यो | आप तो भोत जानकार आदमी हो | हमाओ चश्मा कल गिर गओ हमे तौ कछु दीखु न रओ |” 

     पिताजी हमारे “अरे मास्साब आओ ! आप रहन दो | हम कर देंगे |” हमारा चाय बिस्किट खर्चा अलग से होता था | अगले पांच मिनट में मास्टरनी चौका में चाय खौला रही होती थीं और लालाजी याने के हम उनके लिए बिस्किट सजा रहे होते थे | पूरी मास्टरी उन्होंने इसी तरह भैया दैया करके निकाल दी | जिन्दगी में कभी रजिस्टर तक नहीं बनाया |



     इस ट्रिक का दूसरा बेस्ट उदाहरण अल्लामा इक़बाल हैं | उन्होंने जितना मूर्ख इस देश के मूल नागरिकों को बनाया उतना शायद ही किसी ने बनाया हो | उन्होंने कहा "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा" .. हमारे पूर्वज एकदम फ़्लैट हो लिए | बोले "सही बात है भिया | भोत सई कै रिये हो मियाँ | तुमाये जैसे आदमी की भोत जरूअत ए इतै " ...


     फिर इक़बाल ने कहा" राम है इमाम- ए - हिन्दोस्तां " तो हमारे पूर्वज और फूल के कुप्पा हो गए | बोले " जे बन्दा तौ है भिया खुदा का भेजा हुआ चराग | सारे हिन्दोस्तां में जे फैलाएगा अम्न की रौशनी" | और ले ले के पहुँच गए मट्टी का तेल | के इस चराग को बुझने न देंगे

     तब तक भैया इक़बाल ने बोल दिया "यूनान मिस्त्र रोमां सब मिट गये जहाँ से ... कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ..." बस इत्ते में हमारे पूर्वज फूल के फट गए | इक़बाल को तुरंत गंगा जमना तहजीब का फटा हुआ तहमद घोषित कर दिया | वो तो बलास्फेमी का डर कायम था काफिरों में वरना उनका बस चलता तो पैगम्बर ही बना के छोड़ते अल्लामा को |


     खैर हमारे पूर्वज अल्लामा को सेकण्ड सन ऑफ़ गॉड घोषित करने ही वाले थे कि इतने में खबर आ गई कि अल्लामा तो पाकिस्तान लेकर हिन्दोस्तां से अलग हो गये | और हिन्दोस्तानियों को उन्होंने 15 लाख काफिरों की लाशों की सौगात भेजी है | जो कहते थे कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी वही लोग हमें जिगर के टुकड़े लाहौर, कराची से हमारी हस्ती मिटा चुके थे |



     ईरान से सिकुड़ती हुई हमारे महान देश सीमायें राजस्थान के बॉर्डर पर आकर सिमट गई | क्यों ? क्युकि हमें कुछ भाटों की बातों का विश्वास हो चला था कि हमारी हस्ती तो कभी मिट ही नहीं सकती | जो भगवा कभी गांधार पर फहरा करता था आज उसे हम काश्मीर में नहीं फहरा सकते | क्यों क्युकि सेकुलरिज्म का काला चश्मा पहन हम इतने अंधे हो गये कि सच को नंगी आखों से देखने के बाबजूद हम उसे झुठलाते रहे |


     आज हम फिर वही गलती कर रहे हैं | दुश्मन हमारी सीमा पर ही नहीं बल्कि हमारे घर के अन्दर तक घुस चुका है | 40 हजार से ज्यादा आतंकी हमारे देश का अन्न जल और तमाम सुख सुविधाएँ भोग रहे हैं और हम बुद्ध बने बैठे हैं | वो आतंकी चेहरे पर पीड़ित होने का नकाब ओढ़ कर हमसे हमारी सिम्पैथी ले रहे हैं साथ में हमारे घर जला रहे हैं | प्रतिकार में जब हम उन्हें यहाँ से निकाल रहे हैं तो हमें ही हमारे वसुधैव कुटुम्बकम और अहिंसा परमो धर्मं:का पाठ रहे हैं |



     मित्रों जहाज सुन्दरी सिर्फ एक बात बहुत प्यार से समझाती है | "इन स्टेट ऑफ़ पेनिक प्लीज़ वेर योर मास्क फर्स्ट एंड देन असिस्ट दि अदर पर्सन "  हमारे खुद के छोटे से देश में 130 करोड़ लोग पहले से मौजूद हैं | साला शाम तक साँस लेने तक में दिक्कत ने होने लगती है | राजस्थान के लोग वैसे ही प्यासे मर रहे हैं | केरला में वामपंथी कत्ल कर देते हैं | बंगाल में दीदी चैन से सोने नहीं देती | कश्मीर की तो बात करना ही बेकार है | ऐसे हालत में पहले अपनी फटी जेब में पहले टाँके लगवायें या इनकी सहलायें ?


     मित्रों एक चीज़ क्रिस्टल के माफिक साफ है | आपको पुन: वसुधैव कुटुम्बकम जैसे नारों के साथ मूर्ख बनाने की पूरी तैयारी है | फिर से इक़बाल का गाना शुरू हो चुका है और फिर से आपके हाथ में पाकिस्तान नाम का लल्ला थमा दिया जायेगा | बेहतर है इस बार आप जग जाए | और जो शरण मांगने के लिए बांग दे उसके ओद्योगिक क्षेत्र पर जोर से लात लगाकर बोलें ...


जर्रे जर्रे में शामिल है हमारे लहू के कतरे
हाँ हिन्दोस्तां हमारे बाप का ही है ...

-अनुज अग्रवाल